हर एक सम्त है छाया सुकूत का मंज़र धड़क रहा है मगर ज़लज़ला मिरे अंदर ज़मीं का ज़र्फ़ फ़लक का वक़ार रखते हैं ज़मीं-नज़ाद सही आसमान पर है नज़र डरा न पाएँगे हम को ये सर-फिरे तूफ़ाँ कि मौज-ए-अज़्म तो जा कर रुकेगी साहिल पर तुझे ये नाज़ कि मिर्रीख़ तक तू जा पहुँचा मगर नज़र नहीं आता है तुझ को अपना घर ये ज़ुल्मतों के पुजारी हैं इन से कुछ न कहो दिखाई देते हैं बाहर से आइना-पैकर गुज़र रही है अजब कश्मकश में मेरी हयात न चैन घर के है अंदर न घर के है बाहर अजीब शहर का आलम है आज ऐ 'नजमा' न सामने कोई मंज़र न अब है पस-मंज़र