दिल मुज़्तरिब है और नज़र बे-क़रार है ऐ आने वाले आ कि तिरा इंतिज़ार है ऐसा न हो कि मय-कदा लुट जाए साक़िया बेताब तिश्नगी से हर इक मय-गुसार है एहसान उठ सकेगा किसी और का तो क्या तेरी निगाह-ए-लुत्फ़ भी अब दिल पे बार है बिछड़ा जो उस से फिर वो फ़ज़ा में बिखर गया शायद ज़माना दोश-ए-हवा पर सवार है हम से नज़र मिला के कहो साहब-ए-चमन किस के लहू से ग़ुंचा-ओ-गुल पर निखार है दोनों जहाँ सिमट के मिरे दिल में रह गए शायद तुम्हारा ग़म ही ग़म-ए-रोज़गार है नज़्ज़ारा-ए-बहार से तस्कीं हो क्या उसे जिस की नज़र में तेरा रुख़-ए-पुर-बहार है फिर ख़ंदा-ज़न हो तुझ को मोहब्बत का वास्ता तेरी हँसी से मेरे जुनूँ का वक़ार है वो गर्म-ताज़ अरसा-ए-हस्ती हूँ ऐ 'बहार' आलम मिरे सफ़र ही का गर्द-ओ-ग़ुबार है