दिल न लगने का इक बहाना था क्यों ठहरते वो उन को जाना था हम ने क़दमों में रख दिया सर को वो थे रूठे हुए मनाना था मेरी आँखों पे है मगर एहसाँ उन को पर्दा कभी उठाना था एक थी जुम्बिश-ए-नज़र काफ़ी मेरी बिगड़ी का क्या बनाना था थी न ग़ैरों से गर तुझे फ़ुर्सत मुझ से हरगिज़ न दिल लगाना था क्यों मिरे साथ साथ वो चलते उन के क़दमों में ख़ुद ज़माना था दिल लगाना कहाँ था ये 'आलम' ख़ून-ए-दिल इस तरह बहाना था