दिल न क़ाबू में है न दिलबर है मौत इस ज़िंदगी से बेहतर है आईये जब मिज़ाज में आए ख़ाना-ए-दिल हुज़ूर का घर है ऐ अजल ख़ाना-ए-जहाँ से निकाल कि ये एहसान हद से बाहर है रोने बैठूँ तो लोग कहते हैं अब्र-ए-तर है कि दीदा-ए-तर है कहती है ख़ूबी-ए-ख़िराम-ए-बुताँ कब्क पा-पोश के बराबर है थक गए कू दुकान-ए-संग-अंदाज़ तेरा दीवाना है कि पत्थर है ख़ुश हैं इस सर्व-ए-नाज़ से गुल-ओ-सर्व दोस्त-परवर है बंदा-पर्वर है पूछते क्या हो इस फ़क़ीर का हाल अब तो तकिया फ़क़त ख़ुदा पर है वही अच्छे जो ख़ाना-वीराँ हैं घर बनाना फ़साद का घर है ख़्वाब में बू-ए-यार आती है फ़र्श तो फ़र्श घर मोअ'त्तर है क्यों न चमके ग़ज़ल तमाम ऐ 'रश्क' मुँह का मज़मून माह-ए-अनवर है