दिल ने सुबू तो आँख ने साग़र उठा लिया दोनों ने अपना अपना मुक़द्दर उठा लिया माज़ी का फूल हाल का पत्थर उठा लिया जो मिल गया ग़ज़ल की ज़मीं पर उठा लिया मजबूरियों का उस की कुछ अंदाज़ा कीजिए काँटे को जिस ने फूल समझ कर उठा लिया इतनी चमक थी अश्क-ए-ग़म-ए-रोज़गार में हर क़तरे को समझ के मैं गौहर उठा लिया क्यों लग़्ज़िश-ए-क़दम को मैं अपनी दुआ न दूँ मुझ को किसी ने हाथ बढ़ा कर उठा लिया जब बुझ सकी न प्यास तो प्यासी निगाह ने आँखों में बंद कर के समुंदर उठा लिया जिस से न उठ सकी कभी इक शाख़-ए-गुल 'नसीब' हैरत है ऐसे हाथ ने ख़ंजर उठा लिया