दिल-ओ-जिगर तो किसी दिलरुबा ने लूट लिया बची थी जान सो उस को क़ज़ा ने लूट लिया दिखा के दस्त-ए-हिनाई वो हँस के कहते हैं शफ़क़ के रंग को रंग-ए-हिना ने लूट लिया गुज़र गई यूँही चुप-चाप हाए सारी रात मज़ा विसाल का शर्म-ओ-हया ने लूट लिया सुना के नग़्मा-ए-दिलकश कभी दिखा के झलक हमारे दिल को किसी दिलरुबा ने लूट लिया हवास-ओ-होश को गुम कर दिया है उल्फ़त ने क़रार-ओ-ज़ब्त को नाज़-ओ-अदा ने लूट लिया हमारा नाज़ का पाला हुआ था दिल हमदम उसे नसीब से इक दिलरुबा ने लूट लिया सदा-ए-हक़ जो थी 'संजर' जहाँ में गूँज उठी ज़बाँ से लफ़्ज़ जो निकला सबा ने लूट लिया