दिल पर इक नक़्श मोहब्बत का उभारें तो सही ज़िंदगी अपनी सँवर जाए सँवारें तो सही ज़ीस्त अँधेरों से निकल कर मह-ए-कामिल बन जाए उस की यादों से ज़रा दिल को निखारें तो सही बे-नियाज़ी है जहाँ लुत्फ़-ओ-करम भी हैं वहाँ उस को प्यार और मोहब्बत से पुकारें तो सही इतना मिल जाए कि दुनिया की हवस मिट जाए उस के आगे ज़रा दामन को पसारें तो सही दिल की आवाज़ भी आवाज़-ए-जरस लगती है जा के वीराने में इक रात गुज़ारें तो सही मोम कर देती है पत्थर को भी मीठी आवाज़ हम उन्हें प्यार से इक बार पुकारें तो सही चाँद बादल में छुपा है तो निकल आयेगा रात की छाँव में वो ज़ुल्फ़ सँवारें तो सही देखें क्या फ़ैसला करती है अदालत उन की आज इक प्यार की दरख़्वास्त गुज़ारें तो सही हो न हो उन से मुलाक़ात 'मुसव्विर' लेकिन उन की राहों को निगाहों से सँवारें तो सही