हक़ को हम ने तो सदा फूलते फलते देखा तेज़ आँधी में भी इस शम्अ को जलते देखा जिन की अक़्लीम में होती ही न थी शाम कभी आफ़्ताब उन की हुकूमत का भी ढलते देखा एक पर्बत की चढ़ाई है ये अह्द-ए-हस्ती जो चढ़ा दौड़ के उस को ही फिसलते देखा जिन पे छाया था रऊनत का नशा बे-पायाँ ठोकरें खा के भी उन को न सँभलते देखा रौनक़-ए-बज़्म तो क्या लाएक़-ए-महफ़िल भी नहीं हम ने अपना कोई अरमाँ न निकलते देखा कौन है वो जिसे अब साए से भी नफ़रत है हम ने जब देखा उसे धूप में चलते देखा वक़्त की बात है वो क़ाफ़िला-सालार हैं आज गिड़गिड़ाते जिन्हें देखा है मचलते देखा कभी आईन की तौहीन गवारा कर ली कभी इंसाफ़ का सर हम ने कुचलते देखा एक जान और दो क़ालिब थे 'मुसव्विर' जो कभी ऐसा वक़्त आया कि उन को भी बदलते देखा