दिल पे आफ़त आई अब इक आन में ज़ुल्फ़ कुछ कहती है उस के कान में साथ इस के ग़ैर भी आ जाएगा क्यूँ कि उस काफ़िर को लाऊँ ध्यान में क़ीमत-ए-दिल चाहिए बोसे कई आगे जो आए तिरे ईमान में है ये नफ़रत ग़ैर से लाए नहीं रश्क का मज़मूँ भी हम दीवान में पूछता क्या है हमारी ज़िंदगी जीते हैं पर मौत के अरमान में तौर मरने के न थे 'सालिक' तिरे हाँ मगर रखता है क्या इंसान में