दिल पे गुज़रे हुए हालात किसे पेश करूँ ग़म में डूबे हुए लम्हात किसे पेश करूँ जिन से उम्मीद-ए-वफ़ा थी वो सितमगर निकले अपनी बर्बादी की हर बात किसे पेश करूँ कितने अरमान ख़ुदा जाने भरे हैं दिल में आरज़ूओं की ये सौग़ात किसे पेश करूँ याद-ए-माज़ी को भुलाऊँ तो भुलाऊँ कैसे ये गुज़रते हुए दिन-रात किसे पेश करूँ इक तड़प सी है जो बेचैन किया करती है दिल में उठते हुए जज़्बात किसे पेश करूँ हम-नवा कोई नहीं अपना ज़माने में 'अमीन' अपने दिल-सोज़ ये नग़्मात किसे पेश करूँ