दिल पे वो वक़्त भी किस दर्जा गिराँ होता है ज़ब्त जब दाख़िल-ए-फ़रियाद-ओ-फ़ुग़ाँ होता है कैसे बतलाएँ कि वो दर्द कहाँ होता है ख़ून बन कर जो रग-ओ-पै में रवाँ होता है इश्क़ ही कब है जो मानूस-ए-ज़बाँ होता है दर्द ही कब है जो मोहताज-ए-बयाँ होता है जितनी जितनी सितम-ए-यार से खाता है शिकस्त दिल जवाँ और जवाँ और जवाँ होता है वाह क्या चीज़ है ये शिद्दत-ए-रब्त-ए-बाहम बार-हा ख़ुद पे मुझे तेरा गुमाँ होता है कितनी पामाल उमंगों का है मदफ़न मत पूछ वो तबस्सुम जो हक़ीक़त में फ़ुग़ाँ होता है इश्क़ सर-ता-ब-क़दम आतिश-ए-सोज़ाँ है मगर उस में शोला न शरारा न धुआँ होता है क्या ये इंसाफ़ है ऐ ख़ालिक़-ए-सुब्ह-ए-गुलशन कोई हँसता है कोई गिर्या-कुनाँ होता है ग़म की बढ़ती हुई यूरिश से न घबरा 'आमिर' ग़म भी इक मंज़िल-ए-राहत का निशाँ होता है