बस ख़ाक-ए-क़दम दीजिए तकरार बहुत की मिट्टी मिरी इस ख़ाक ने ही ख़्वार बहुत की चिड़ मुझ को तुझे रीझ के तकरार बहुत की ख़ुश रह कि ख़ुशामद तिरी ऐ यार बहुत की हरगिज़ न गई पेश न आया मह-बे-मेहर हर चंद कि ज़ारी पस-ए-दीवार बहुत की लाई कशिश-ए-दिल ही तुम्हें तुम ने तो वर्ना यहाँ आने में इक उम्र तलक आर बहुत की उस चश्म ने देखा दिल-ए-बीमार को मेरे बीमार ने कल ख़ातिर-ए-बीमार बहुत की अबरू की तसव्वुर में हुआ क़त्ल मिरा दिल फल क्यूँ न मिले मर्द था तलवार बहुत की उश्शाक़ में मैं ही हदफ़-ए-तीर हूँ उस का अज़्मत ही यही ख़िदमत-ए-सरकार बहुत की इस तरह का बे-दीद तो ग़म होगा जहाँ में की हम ने भी है दीद तरहदार बहुत की सूरत तिरी आगे ही भबूका थी व-लेकिन ज़ुल्फ़ों के बिखरने ने धुआँधार बहुत की यहाँ आठ पहर जिंस से वफ़ा हम ने दिखाई देखा न ख़रीदार तो नाचार बहुत की यारब न रहे नाम जुदाई कि रह-ए-इश्क़ आसान थी पर उस ने ही दुश्वार बहुत की मा'लूम कोई दिन को तुझे होगी हक़ीक़त कम उस तिरे इक़रार की इंकार बहुत की हर चंद कि ख़त से भी धुआँ-शक्ल है ऐ मह पर ख़त की न रखने ने नुमूदार बहुत की घर में न तिरे कूद सका रात-गए मैं हाँ अपनी सी तदबीर तो ऐ यार बहुत की बहबूद के आसार न देखे कभू हरगिज़ जिस शख़्स ने ऊँची तिरी दीवार बहुत की कम हम सा ख़रीदार बहम पहुँचेगा उस को क्यूँ इश्क़ ने जिंस-ए-ग़म-ए-बिसयार बहुत की बोला सर-ए-मंसूर सर-ए-दार पे 'एहसाँ' हक़ है कि सज़ा-वार थे पिंदार बहुत की