दिल से अगर न होगा तो होगा निगाह से इंसान हूँ मैं बच न सकूँगा गुनाह से यूसुफ़ निकल तो आए हो ज़िंदान-ए-राह से तुम कैसे बच सकोगे ज़ुलेख़ा की चाह से कैसी है दुनिया होते हैं क्या दुनिया-दार लोग पूछो किसी फ़क़ीर से या बादशाह से जिस की हदों में जलते हैं जिबरील के भी पर मैं हो के आ गया हूँ उसी जल्वा-गाह से शाइ'र की क़द्र है न कोई शायरी का मोल मिलता है शायरी का सिला वाह वाह से अपनी नज़र का हुस्न है और कुछ नहीं 'सिराज' जिस को हसीन चाहो बना दो निगाह से