दिल ऐसा इशरत-ओ-राहत की ख़्वाहिशों में जला तमाम उम्र मैं बे-नाम हसरतों में जला ये कल की बात है ज़ेहनों में गूँजती होगी चराग़ एक हवाओं के रास्तों में जला मिरे ख़ुलूस के साए में काश जी सकता मिरा हरीफ़ जला भी तो साज़िशों में जला फ़ज़ाओं में जो अंधेरे बिखेर देता है वही चराग़-ए-अदावत मगर दिलों में जला ये और बात अभी रौशनी नहीं फैली कोई दिया तो मगर ग़म की ज़ुल्मतों में जला वो कौन हैं जिन्हें साया लगी फ़िराक़ की आँच मिरा बदन तो हमेशा रफ़ाक़तों में जला यही नहीं कि फ़रोज़ाँ थी इंतिज़ार की आग चराग़-ए-दर्द भी बरसात की रुतों में जला न-जाने खा गई किस की नज़र बहारों को ये एक शहर-ए-मोहब्बत था नफ़रतों में जला वफ़ा की आग में कुंदन बना तो हैरत क्या 'सिराज' वैसे भी अहबाब के दुखों में जला