दिल से ताअत तिरी नहीं होती हम से अब बंदगी नहीं होती ऐसी कुछ बे-दिली सी 'ग़ालिब' है कि तिरी याद भी नहीं होती दिल न जब तक हो एक शोला-ए-इश्क़ ज़िंदगी ज़िंदगी नहीं होती हैफ़ वह जस से शिद्दत-ए-ग़म में ख़्वाहिश-ए-मर्ग भी नहीं होती रास आती नहीं कोई तदबीर यास-ए-जावेद भी नहीं होती ज़ब्त-ए-ग़म भी मुहाल है हम से और फ़रियाद भी नहीं होती दिल-परस्ती ख़ुदा-परस्ती है ख़ुद-परस्ती ख़ुदी नहीं होती अल-हज़र तिश्नगी-ए-इश्क़ 'जिगर' हाए तस्कीन ही नहीं होती