फिर ए'तिबार-ए-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा जो दिल तिरी नज़र से गिरा दिल नहीं रहा नश्तर चुभोए अब न पशेमानी-ए-निगाह मुझ को तो शिकवा-ए-ख़लिश-ए-दिल नहीं रहा मौजें उभार कर मुझे जिस सम्त ले चलें हद्द-ए-निगाह तक कहीं साहिल नहीं रहा क्या कहिए अब मआ'ल-ए-मोहब्बत की सरगुज़िश्त याद उस की रह गई है मगर 'दिल' नहीं रहा