दिल तलबगार-ए-तमाशा क्यूँ था यानी हसरत-कश-ए-दुनिया क्यूँ था दिन बहर-ए-हाल गुज़र ही जाते दिल का एहसान उठाया क्यूँ था सख़्त बेगाना था लेकिन या-रब इतना मानूस वो चेहरा क्यूँ था जुज़ ग़ज़ल ख़ाक था दामन में मिरे उस ने फिर प्यार से देखा क्यूँ था वो अगर मेरी रसाई में न था आईने में कोई वैसा क्यूँ था आँख को शौक़ कि देखे उस को दिल का पछतावा कि देखा क्यूँ था हासिल-ए-बज़्म है परवाने की राख रात भर शम्अ का चर्चा क्यूँ था सुब्ह के नाम से घबराता हूँ जी को रास आया अंधेरा क्यूँ था सोहबत-ए-गुल-बदनाँ में 'शोहरत' दिल में काँटा सा खटकता क्यूँ था