दिल उमंगों से जो ख़ाली हो तो बे-दिल कहिए फिर किसे नाक़ा समझिए किसे महमिल कहिए अब कोई यार न दिलदार न दुश्मन न हरीफ़ ज़िंदगी इस को तिरी कौन सी मंज़िल कहिए आज हर गाम पे मक़्तल का गुमाँ होता है किसे क़ातिल तो किसे कूचा-ए-क़ातिल कहिए ज़िंदगी मौत से कुछ कम तो नहीं है दुश्वार किसे आसान समझिए किसे मुश्किल कहिए सारी बीमारी ओ सेह्हत का उसी पर है मदार जिस्म का छोटा सा टुकड़ा कि जिसे दिल कहिए सारी क़ुर्बानियाँ अब तक की तो बातिल ठहरीं क्या बचा फिर कि जिसे ज़ीस्त का हासिल कहिए दिल ही वीरान हो 'अज़हर' तो कहाँ फिर रौनक़ रास आ सकती है फिर कौन सी महफ़िल कहिए