दिल याद करके उस को परेशान है अभी लेकिन वो मेरे हाल से अंजान है अभी रुख़्सत वो जाने कब का मिरे घर से हो गया मैं देखता हूँ दिल में वो मेहमान है अभी मैं चादर-ए-सुकून भला कैसे ओढ़ लूँ जब हादसों का शहर में इम्कान है अभी छोड़ेंगे हम न राह-ए-वफ़ा-ओ-ख़ुलूस को देखो हमारे हाथ में क़ुरआन है अभी ज़ुल्म-ओ-सितम वो हद से सिवा कर सकेगा क्या हर इक ग़रीब बे-सर-ओ-सामान है अभी इक एक क़तरा अपने लहू का बहाऊँगा तू आज़मा ले तन में मिरे जान है अभी बुनियाद तुझ से ज़ुल्म-ओ-सितम की पड़ी मगर मेह्र-ओ-वफ़ा से 'दाग़' तू अंजान है अभी