दिलबरी इस रुख़-ए-दिल-रुबा की ख़ाल-ओ-ख़द से इबारत नहीं है महव-ए-नज़्ज़ारा-ए-ख़ाल-ओ-ख़द को ये समझने की मोहलत नहीं है दिल से होती तो है राह दिल को फ़ासला है मगर राह ख़ुद भी एक हो जाएँ हम आप मिल कर इश्क़ की ऐसी क़िस्मत नहीं है जिस को अपनी नज़र जानता हूँ उस के जल्वों का है इक करिश्मा वो नज़र ही नहीं जिस की हस्ती उस की मरहून-ए-मिन्नत नहीं है ये बलाएँ जो पेश-ए-नज़र हैं ये तो बे-शक फ़रेब-ए-नज़र हैं लेकिन उन से जो तारी है दिल पर क्या ये डर भी हक़ीक़त नहीं है ग़म है जिस अहद-ए-माज़ी का सब को उठ के आ जाएँ ढाँचे जो उस के बढ़ के उन को गले से लगा ले ये किसी में भी हिम्मत नहीं है शम्अ पर जान देना पतंगो तुम ने सीखा है किस मदरसे में शम्अ' पर जान देना पतंगो ज़िंदगी की ज़रूरत नहीं है मैं 'मुहिब' एक शो'ला था या'नी होते रहने का इक मश्ग़ला था होते होते वो शय हो गया हूँ जिस में होने की ताक़त नहीं है