ब-ज़ाहिर उन से नफ़रत हो रही है हक़ीक़त में मोहब्बत हो रही है ज़मीं पर आ रहे हैं ज़लज़ले भी जो फ़ितरत से बग़ावत हो रही है उतरते हैं फ़रिश्ते रहमतों के मिरे घर में तिलावत हो रही है गुनाहों से मैं तौबा कर रहा हूँ मिरे दिल में नदामत हो रही है मुहिब 'कौसर' निज़ाम-ए-मुस्तफ़ा की ज़माने को ज़रूरत हो रही है