दिल-ए-आशुफ़्ता पे इल्ज़ाम कई याद आए जब तिरा ज़िक्र छिड़ा नाम कई याद आए तुझ से छुट कर भी गुज़रनी थी सो गुज़री लेकिन लम्हा लम्हा सहर ओ शाम कई याद आए हाए नौ-उम्र अदीबों का ये अंदाज़-ए-बयाँ अपने मक्तूब तिरे नाम कई याद आए आज तक मिल न सका अपनी तबाही का सुराग़ यूँ तिरे नामा ओ पैग़ाम कई याद आए कुछ न था याद ब-जुज़-कार-ए-मोहब्बत इक उम्र वो जो बिगड़ा है तो अब काम कई याद आए ख़ुद जो लब-तिश्ना थे जब तक तो कोई याद न था प्यास बुझते ही तही-जाम कई याद आए