दिल-ए-दर्द-आश्ना रक्खे हुए हैं बदन में कर्बला रक्खे हुए हैं किसी के रंग में ढलते नहीं हैं हम अपनी कीमिया रक्खे हुए हैं हमीं तफ़्हीम-ए-दुनिया के मुअम्मे ख़ला अन्दर ख़ला रक्खे हुए हैं कोई मंज़िल नहीं मंज़िल हमारी इक आतिश ज़ेर-ए-पा रक्खे हुए हैं लड़ाई ज़ुल्मत-ए-शब से है जारी सर-ए-बाम इक दिया रक्खे हुए हैं हमारे सामने हैं पर वो यूँ हैं न होने की अदा रक्खे हुए हैं जो मौसम पहन कर आए हैं सूरज वो दामन में घटा रक्खे हुए हैं दलील-ए-ख़ामुशी काम आ रही है किसी को बे-नवा रक्खे हुए हैं