दिल-ए-दरवेश की दुआ से उठा ये हयूला सा जो हवा से उठा जिस्म उलझा मगर थकन उतरी पर जो इक कर्ब नहरवा से उठा नश्शा-ए-ख़्वाब बअ'द में उतरा पहले ख़ुशनूदी-ए-वला से उठा शहर-ए-सर-मस्त में शफ़क़ उतरी और मंज़र कोई वरा से उठा इस को मैं इंक़लाब कहता हूँ ये जो इंकार की फ़ज़ा से उठा