आलम-ए-इम्काँ में दुनिया की हवा थी मैं न था जल्वा-आरा सिर्फ़ ज़ात-ए-किब्रिया थी मैं न था कर दिया बेदार जिस ने साकिनान-ए-अर्श को वो किसी दर्द-आश्ना दिल की सदा थी मैं न था मुंतशिर जिस ने किया था उन की ज़ुल्फ़-ए-नाज़ को सच अगर पूछो तो वो बाद-ए-सबा थी मैं न था खुल गया जो राज़-ए-उल्फ़त आज अहल-ए-बज़्म पर ये तुम्हारी मस्त नज़रों की ख़ता थी मैं न था तंग आ कर गर्दिश-ए-अय्याम से बहर-ए-सुजूद वो तो मेरी ज़िंदगी वक़्फ़-ए-दुआ थी मैं न था हद से जब 'क़ैसर' बढ़ी उन की जफ़ा-ए-ना-रवा जो ब-रू-ए-कार आई वो वफ़ा थी मैं न था