दिल-ए-गुस्ताख़ को लाज़िम है जलाया होता इश्क़ मासूम था झगड़े में न लाया होता तेरी ताज़ीम में उट्ठी हैं जो आहें फ़ौरन इक नज़र देख के उन को तो बिठाया होता लोग जो इश्क़ पे घर-बार लुटा कर आए वारिस-ए-शेर-ओ-सुख़न उन को बनाया होता मेरे विज्दान में रहते हैं किसी याद के दुख ख़्वाब कुछ भेज के यादों को सुलाया होता मुझ को महरूम-ए-वफ़ा देख के नौहा कहते इश्क़-ए-मग़्मूम पे मातम ही मनाया होता एक इबहाम है घूमेगा मुक़द्दर फिर से काट के हाथ लकीरों को घुमाया होता उन को बीमार के लहजे की थकन याद नहीं तुझ सा बे-ग़रज़ मसीहा न ख़ुदाया होता ये मिरी सिफ़त 'ख़लील' आज मुझे ले डूबी सच ने सूली पे चढ़ाया न चढ़ाया होता