दिल-ए-मुज़्तर में जलती एक हसरत और रखनी है

दिल-ए-मुज़्तर में जलती एक हसरत और रखनी है
मुझे ताक़-ए-जुनूँ में इक मोहब्बत और रखनी है

गरेबाँ चाक है गरचे मुझे कुछ और करना है
कि अब इन वहशतों में एक वहशत और रखनी है

ख़तीब-ए-वक़्त ने सिखला दिया ये अहल-ए-दुनिया को
ख़िताबत और रखनी है अदावत और रखनी है

कोई भी वारदात-ए-क़ल्ब-ओ-जाँ ज़ाहिर नहीं करनी
मुझे अब इंतिक़ामन अपनी हालत और रखनी है

तवाफ़-ए-शहर-ए-जानाँ से अगर 'सज्जाद' फ़ुर्सत हो
थके पैरों के नीचे इक मसाफ़त और रखनी है


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