तार की झंकार ही से बज़्म थर्रा जाए है गाहे गाहे साज़-ए-हस्ती यूँ भी छेड़ा जाए है क़ाफ़िला छूटे ज़माना हो गया लेकिन हनूज़ याद-ए-आवाज़-ए-जरस रह रह के तड़पा जाए है ख़ुद ज़माना रुख़ हमारा देखता है हम नहीं जिस तरफ़ मुड़ते हैं हम धारा भी मुड़ता जाए है सर जो गर्दन पर नहीं तो क्या हथेली पर सही मंज़िल-ए-इश्क़-ओ-जुनूँ से यूँही गुज़रा जाए है हम कहाँ डूबे थे ये कल पूछिएगा आज तो कुछ तलातुम सा अभी मौजों में पाया जाए है अक़्ल वालो कुछ कहो ये रिश्ता-ए-राज़-ए-हयात क्यूँ उलझता जाए है जितना कि खुलता जाए है आ रहा हूँ दोस्तो ठहरो मगर ये तो बताओ मुझ को किस गोशे से सहरा के पुकारा जाए है