दिल-ए-मुख़्लिस कहे बिन बात दिल की जान जाता है सलीक़े से मनाएँ गर तो रूठा मान जाता है ये ख़ामोशी न जाने और कितने रंग बदलेगी ग़ुलू को दूर से ही आदमी पहचान जाता है भले कितना ही प्यारा क्यों न हो जाँ से जुदा हो कर तुराबी जिस्म वापस बे-सर-ओ-सामान जाता है बड़ी मशग़ूल रहती सोच है बिस्मिल मिरी अक्सर हवा लगती है तो ज़ख़्मों की जानिब ध्यान जाता है मोहब्बत हम ने की है तुझ से जानाँ आन पर आ कर तिरा यूँ छोड़ कर जाना ख़िलाफ़-ए-शान जाता है बुला कर देख लो तुम भी कभी 'अबरार' फ़ुर्सत में बड़ी मुश्किल से घर आया हुआ मेहमान जाता है