दिल-ए-शिकस्ता भी था कोई राज़दाँ भी न था वो मेहरबाँ सही पर इतना मेहरबाँ भी न था रिवायतों के तिलिस्मात तोड़ कर ये खुला ग़म-ए-ज़माना कोई जौर-ए-आसमाँ भी न था मुआ'मलात ग़म-ए-दोस्ती सलामत-बाश वो ए'तिबार कि अंदेशा-ए-गुमाँ भी न था ज़माना-साज़ कभी तबा-ए-मह-रुख़ाँ भी न थी कि इस मिज़ाज का अंदाज़-ए-दिल-बराँ भी न था मोहब्बतों के क़रीने बदल गए आख़िर मैं इस के दर पे जो पहुँचा तो पासबाँ भी न था तमाम शहर पे तारी है कैसा सन्नाटा सुकूत-ए-सुब्ह में आवाज़ा-ए-अज़ाँ भी न था