दिल-गिरफ़्ता ही सही बज़्म सजा ली जाए याद-ए-जानाँ से कोई शाम न ख़ाली जाए रफ़्ता रफ़्ता यही ज़िंदाँ में बदल जाते हैं अब किसी शहर की बुनियाद न डाली जाए मुसहफ़-ए-रुख़ है किसी का कि बयाज़-ए-हाफ़िज़ ऐसे चेहरे से कभी फ़ाल निकाली जाए वो मुरव्वत से मिला है तो झुका दूँ गर्दन मेरे दुश्मन का कोई वार न ख़ाली जाए बे-नवा शहर का साया है मिरे दिल पे 'फ़राज़' किस तरह से मिरी आशुफ़्ता-ख़याली जाए