दिल-लगी अपनी तिरे ज़िक्र से किस रात न थी सुब्ह तक शाम से या-हू के सिवा बात न थी इल्तिजा तुझ से कब ऐ क़िबला-ए-हाजात न थी तेरी दरगाह में किस रोज़ मुनाजात न थी अब मुलाक़ात हुई है तो मुलाक़ात रहे न मुलाक़ात थी जब तक कि मुलाक़ात न थी ग़ुंचा-ए-गुल को न हँसना था तिरी सूरत से छोटे से मुँह की सज़ा-वार बड़ी बात न थी इब्तिदा से तुझे मौजूद समझता था मैं मिरे तेरे कभी पर्दे की मुलाक़ात न थी ऐ नसीम-ए-सहरी बहर-ए-असीरान-ए-क़फ़स तोहफ़ा-तर निकहत-ए-गुल से कोई सौग़ात न थी उन दिनों इश्क़ रुलाता था हमें सूरत-ए-अब्र कौन सी फ़स्ल थी वो जिस में कि बरसात न थी क्या कहूँ उस के जो मुझ पर करम-ए-पिन्हाँ थे ज़ाहिरी यार से हर-चंद मुलाक़ात न थी अपने बाँधे होए गाती तुझे देखा फड़का दिलरुबा शय थी मिरी जान तिरी गात न थी इक में मिल गए ऐ शाह-सवार अहल-ए-नियाज़ नाज़-ए-माशूक़ था तू सुन की तिरे लात न थी लब के बोसे का है इंकार तअज्जुब ऐ यार फेरे साइल से जो मुँह को वो तिरी ज़ात न थी कमर-ए-यार थी अज़-बस-कि निहायत नाज़ुक सूझती बंदिश-ए-मज़मूँ की कोई घात न थी उन दिनों होता था तू घर में हमारे शब-बाश रोज़-ए-रौशन से कम ऐ मेहर-ए-लिक़ा रात न थी बे-शुऊरों ने न समझा तो न समझा 'आतिश' नुक्ता-संजों को लतीफ़ा थी तिरी बात न थी