दीवानगी ने क्या क्या आलम दिखा दिए हैं परियों ने खिड़कियों के पर्दे उठा दिए हैं अल्लाह-रे फ़रोग़ उस रुख़्सार-ए-आतिशीं का शम्ओं' के रंग मिस्ल-ए-काफ़ूर उड़ा दिए हैं आतिश-नफ़्स हवा है गुलज़ार की हमारे बिजली गिरी है ग़ुंचे जब मुस्कुरा दिए हैं सौ बार गुल को उस ने तलवों तले मला है कटवा के सर्व शमशाद अक्सर जला दिए हैं इंसान-ए-ख़ूब-रू से बाक़ी रहे तफ़ावुत इस वास्ते परी को दो पर लगा दिए हैं अबरू-ए-कज से ख़ून-ए-उश्शाक़ क्या अजब है तलवार ने निशान-ए-लश्कर मिटा दिए हैं किस किस को ख़ूब कहिए अल्लाह ने बुतों को क्या गोश ओ चश्म क्या लब क्या दस्त-ओ-पा दिए हैं बे-यार बाम पर जो वहशत में चढ़ गया हूँ परनाले रोते रोते मैं ने बहा दिए हैं वस्फ़-ए-कमान-ए-अबरू जो कीजिए सो कम है बे-तीर बिस्मिलों के तूदे लगा दिए हैं रोया हूँ याद कर के मैं तेरी तुंद-ख़ूई सरसर ने जब चराग़-ए-रौशन बुझा दिए हैं सोज़-ए-दिल-ओ-जिगर की शिद्दत फिर आज-कल है फिर पहलुओं के तकिए मशअ'ल बना दिए हैं शम्ओं' को तू ने दिल से परवानों के उतारा आँखों से बुलबुलों की गुलशन गिरा दिए हैं वो बादा-कश हूँ मेरी आवाज़-ए-पा को सुन कर शीशों ने सर हुज़ूर-ए-साग़र झुका दिए हैं अश्कों से ख़ाना-ए-तन 'आतिश' ख़राब होगा क़स्र-ए-सीपिहर-ए-रिफ़अत बाराँ ने ढा दिए हैं