दिलों को लूटने वाली अदा भी याद नहीं वफ़ा का ज़िक्र ही कैसा जफ़ा भी याद नहीं मुआ'मलात-ए-मोहब्बत तो याद क्या रहते वो रस्म-ओ-राह का अब सिलसिला भी याद नहीं निकल पड़े हैं सफ़ीने हवाओं के रुख़ पर ख़ुदा भी याद नहीं नाख़ुदा भी याद नहीं वो काएनात-ए-मोहब्बत हुई नज़र ओझल फ़ुसूँ-तराज़ी-ए-रस्म-ए-वफ़ा भी याद नहीं तरीक़-ए-मेहर-ओ-वफ़ा के चलन तो दूर रहे किसी को वा'दा-ए-मेहर-ओ-वफ़ा भी याद नहीं जवाब में जो सुना था वो याद क्या होता हमें तो अपना सुनाया हुआ भी याद नहीं ये वाक़िआ' है कि देखा था ख़्वाब मंज़िल का ये हादिसा है कि अब रास्ता भी याद नहीं कभी सुलूक किसी ने किया तो था लेकिन रवा भी याद नहीं नारवा भी याद नहीं हम उन को याद दिलाएँ तो क्या 'रिशी' जिन को नियाज़-मंदी-ए-अहल-ए-वफ़ा भी याद नहीं