या रब मिरी हयात से ग़म का असर न जाए जब तक किसी की ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ सँवर न जाए वो आँख क्या जो आरिज़ ओ रुख़ पर ठहर न जाए वो जल्वा क्या जो दीदा ओ दिल में उतर न जाए मेरे जुनूँ को ज़ुल्फ़ के साए से दूर रख रस्ते में छाँव पा के मुसाफ़िर ठहर न जाए मैं आज गुलसिताँ में बुला लूँ बहार को लेकिन ये चाहता हूँ ख़िज़ाँ रूठ कर न जाए पैदा हुए हैं अब तो मसीहा नए नए बीमार अपनी मौत से पहले ही मर न जाए कर ली है तौबा इस लिए वाइज़ के सामने इल्ज़ाम-ए-तिश्नगी मिरे साक़ी के सर न जाए साक़ी पिला शराब मगर ये रहे ख़याल आलाम-ए-रोज़गार का चेहरा उतर न जाए मैं उस के सामने से गुज़रता हूँ इस लिए तर्क-ए-तअल्लुक़ात का एहसास मर न जाए मसरूर-ए-दीद-ए-हुस्न है इस वास्ते 'फ़ना' दुनिया के ऐब पर कभी मेरी नज़र न जाए