दिलों में कोई हवस कोई आरज़ू भी नहीं मैं सब लुटा चुका अब फ़िक्र-ए-आबरू भी नहीं ज़माँ-मकाँ से गुज़र कर हूँ आलम-ए-हू में सफ़र तमाम हुआ शौक़-ए-जुस्तुजू भी नहीं तिरे ख़याल की सर-मस्तियाँ दिमाग़ में हैं ये वो नशा है कि मिन्नत-कश-ए-सुबू भी नहीं वो बंद आँखों में रह रह के जगमगाता है नमाज़-ए-इश्क़ में पाबंदी-ए-वुज़ू भी नहीं लहू बदन में जो होता तो कुछ टपकता भी दहान-ए-ज़ख़्म को अब हाजत-ए-रफ़ू भी नहीं 'शमीम' ले के कहाँ आई ज़िंदगी मुझ को अजीब शहर है हमदम कहाँ अदू भी नहीं