दिल-ओ-नज़र पे कोई इख़्तियार भी तो नहीं ये शुतर ऐसे मगर बे-महार भी तो नहीं मना ही लेते उसे हम कड़ी रियाज़त से वो ज़ूद-रंज कि परवरदिगार भी तो नहीं न जाने क्यों हमें शर्मिंदगी है माज़ी पर अगरचे ऐसा कोई दाग़दार भी तो नहीं ये कैफ़ियत कि कोई सरख़ुशी नहीं लेकिन तिरी जुदाई तबीअत पे बार भी तो नहीं हिसाब-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ किस तरह से मुमकिन हो हुज़ूर इश्क़ कोई कारोबार भी तो नहीं तअ'ल्लुक़ात में कैसे कोई तनासुब हो कोई हलीम कोई बुर्दबार भी तो नहीं कहाँ पड़ाव करें किस के आसरे पे करें कि दूर तक शजर साया-दार भी तो नहीं मक़ाम-ए-फ़ैज़ मिला और न हम हुए मंसूर हमारी मंज़िल-ए-मक़्सूद दार भी तो नहीं गुनह सवाब शहीद-ओ-यज़ीद चे मा'नी ये क़त्ल-गाह कोई कार-ज़ार भी तो नहीं