दिल-पारों की हम जो निगहबानी करते नूर सहारे अपनी निगरानी करते होते हम भी गर अज्दाद की फ़ितरत पर शोला-ज़ारों में गुल-अफ़्शानी करते प्यार भरोसा शफ़क़त खो देते सब कुछ कैसे बड़ों की हम ना-फ़रमानी करते कल जो अगर सख़्ती से पेश आए होते हम भी अपने घर में सुल्तानी करते दूर-निगाही दीदा फाड़े बैठी थी किस काफ़िर के संग मुसलमानी करते सर टकराते चुप को देते गोयाई यूँ मा'शूक़ को बुत ख़ुद को मानी करते