दिलरुबा प्यार में पैदा नए दस्तूर न कर तोड़ दें अह्द-ए-वफ़ा इतना तू मजबूर न कर मान ले बात मिरी दर्द को मशहूर न कर शर्त-ए-रुस्वाई जहाँ वालों की मंज़ूर न कर मुद्दतें हिज्र की भर देंगी मिरे ज़ख़्मों को मत लगा वस्ल के नश्तर उन्हें नासूर न कर सरसर-ए-वक़्त के झोंकों ने बुझाया है जिन्हें उन चराग़ों को जला ज़िंदगी बे-नूर न कर