दिन गुज़रता है कहाँ रात कहाँ होती है दर्द के मारों से अब बात कहाँ होती है एक से चेहरे तो होते हैं कई दुनिया में एक सी सूरत-ए-हालात कहाँ होती है ज़िंदगी के वो किसी मोड़ पे गाहे गाहे मिल तो जाते हैं मुलाक़ात कहाँ होती है आसमानों से कोई बूँद नहीं बरसेगी जलते सहराओं में बरसात कहाँ होती है यूँ तो औरों की बहुत बातें सुनाईं उन को अपनी जो बात है वो बात कहाँ होती है जैसी आग़ाज़-ए-मोहब्बत में हुआ करती है वैसी फिर शिद्दत-ए-जज़्बात कहाँ होती है प्यार की आग बना देती है कुंदन जिन को उन के ज़ेहनों में भला ज़ात कहाँ होती है