दिन के हारे हुए जब शाम को घर जाते हैं ज़िंदगी हम तिरी आग़ोश में मर जाते हैं कोई तो बात है जो अब भी तिरी जानिब हम दिल इजाज़त नहीं देता है मगर जाते हैं आज भी कच्चे घड़ों पर ही भरोसा कर के इश्क़ वाले चढ़े दरिया में उतर जाते हैं हम ग़रीबों के तरफ़-दार बहुत हैं लेकिन बात इंसाफ़ की आए तो मुकर जाते हैं कौन फिर सच की हिमायत में गवाही देगा हम भी क़ातिल की हिमायत में अगर जाते हैं आँख सूरज से मिलाने का जिन्हें दा'वा है एक जुगनू भी चमक जाए तो डर जाते हैं इस अदाकार ज़माने को सुख़नवर 'तश्ना' याद आते हैं कि जिस वक़्त गुज़र जाते हैं