दिन की दहलीज़ पे ठहरे हुए साए भी गए रात क्या आई कि अपने भी पराए भी गए अक्स ता'बीर का उभरे ये तमन्ना ही रही आईने ख़्वाब के आँखों को दिखाए भी गए तोहमत-ए-ख़ोशा-ए-गंदुम है अभी तक सर पर हम उछाले भी गए हम कि गिराए भी गए शजर-ए-दर्द कि कल भी था हरा आज भी है वक़्त की धूप में हम गरचे जलाए भी गए हम तो उन में हैं जो रोते हैं तो रोते ही रहें तुम वो ख़ुश-बख़्त कि रोए तो हँसाए भी गए क़िस्सा-ए-दर्द बहर-हाल सुनाती ही रही गरचे दीवार पे सौ रंग चढ़ाए भी गए