सुकूँ नसीब हुआ और न कुछ क़रार मुझे ख़िज़ाँ ही लगता है ये मौसम-ए-बहार मुझे वो आएँ बज़्म-ए-तसव्वुर में बस ये काफ़ी है क़सम ख़ुदा की यही है विसाल-ए-यार मुझे ये बे-ख़ुदी भी मोहब्बत की इक अमानत है ख़ुदा के वास्ते कीजे न होशियार मुझे समझ सके न मिरे ग़म को आप भी अब तक यही है ग़म जो रुलाता है ज़ार ज़ार मुझे ये जानता हूँ कि मंज़िल क़रीब है लेकिन दिखाई कुछ नहीं देता ब-जुज़ ग़ुबार मुझे ग़म-ए-हयात की जागी उदास रातों में ये आरज़ू है कभी दिल से तू पुकार मुझे किसी के दिल को बदल दूँ मैं किस तरह 'सरवर' जब अपने दिल पे नहीं है कुछ इख़्तियार मुझे