दिन में जीता हूँ मगर रात में मर जाता हूँ इक तलातुम सा है यादों का जिधर जाता हूँ मैं ने तुझ जैसे किसी शख़्स को चाहा था कभी अब तो इस बात को सोचूँ भी तो डर जाता हूँ कोई दरिया है तसव्वुर के किसी कोने में जिस में हर शाम मैं चुप-चाप उतर जाता हूँ अब कोई प्यार जताए तो हँसी आती है एक बे-ज़ारी के एहसास से भर जाता हूँ अब तो इस राह पे वो दोस्त न यादें उस की फिर भी जाता हूँ तो पत्थर सा ठहर जाता हूँ कोई अब मुझ को सँभाले तो फिसलता हूँ 'सहाब' कोई अब मुझ को समेटे तो बिखर जाता हूँ