दिन में इस तरह मिरे दिल में समाया सूरज रात आँखों के उफ़ुक़ पर उभर आया सूरज अपनी तो रात भी जलते ही कटी दिन की तरह रात को सो तो गया दिन का सताया सूरज सुब्ह निकला किसी दुल्हन की दमक रुख़ पे लिए शाम डूबा किसी बेवा सा बुझाया सूरज रात को मैं मिरा साया थे इकट्ठे दोनों ले गया छीन के दिन को मिरा साया सूरज दिन गुज़रता न था कम-बख़्त का तन्हा जलते वादी-ए-शब से मुझे ढूँड के लाया सूरज तू ने जिस दिन से मुझे सौंप दिया ज़ुल्मत को तब से दिन में भी न मुझ को नज़र आया सूरज आसमाँ एक सुलगता हुआ सहरा है जहाँ ढूँढता फिरता है ख़ुद अपना ही साया सूरज दिन को जिस ने हमें नेज़ों पे चढ़ाए रक्खा शब को हम ने वही पलकों पे सुलाया सूरज