दिन रात किस की याद थी कैसा मलाल था सदक़े में कुछ तो बोल तू क्या तुझ पे हाल था छूटा तिरा मरीज़ अगर मर गया कि शोख़ जो दम था ज़िंदगी का सो उस पर वबाल था नाख़ुन तिरे की मेहंदी से तन्हा नहीं हैं दाग़ चंदे शफ़क़ से न'अल-दर-आतिश हिलाल था इस सोच से खुली है हक़ीक़त कि एक उम्र मक्खी की फ़र्ज ओ शैख़ की दाढ़ी का बाल था को चश्म-ए-फ़हम ताकि नज़र आए ये कि याँ देखा जो कुछ सो ख़्वाब जो समझा ख़याल था झगड़ा मिरा किया ही न तीं साफ़ वर्ना शोख़ ज़र्रा ज़बाँ पे तेग़ की ये इंफ़िसाल था 'क़ाएम' मैं रेख़्ता को दिया ख़िलअत-ए-क़ुबूल वर्ना ये पेश-ए-अहल-ए-हुनर क्या कमाल था