दिन-रात नेता रहते हैं अपनी जुगाड़ में उन की बला से देश चला जाए भाड़ में शुरफ़ा हैं बा-असर हैं मगर फ़ाक़ा-मस्त हैं कुंडी तलक हिलेगी न उन के किवाड़ में मैं चाहता हूँ लोग हों लोगों के पर्दा-पोश और लोग सारे रहते हैं अख्खल पछाड़ में हालात से निपटने का हम को शुऊ'र है हम कब कहाँ किसी से हैं कम मार-धाड़ में हम ने भी ख़ुद ये सोच के दाढ़ी रखाई है हम भी शिकार खेलेंगे दाढ़ी की आड़ में वो भी लंगोटी छोड़ सियासत में आ गए साधू बिचारे रहते कहाँ तक पहाड़ में ऐ शैख़-ए-मोहतरम तुम्हें जिन की तलाश है वो बेवक़ूफ़ तुम को मिलेंगे तिहाड़ में 'दिलकश' ये ता'ने सुनता हूँ बेगम से रात दिन बच्चों को मेरे तुम ने बिगाड़ा है लाड में