हमेशा ही रहा ऊँचा झुका हरगिज़ न सर बरसों

हमेशा ही रहा ऊँचा झुका हरगिज़ न सर बरसों
रहा बेगम के आगे और ही आलम दिगर बरसों

बहुत दिन हो गए बेगम ने मुझ को लात मारी थी
बस उस इक लात के सदक़े रही टेढ़ी कमर बरसों

वो दोनों चाहते थे उन का घर-दामाद बन जाऊँ
पटाते ही रहे मुझ को मिरी सास और सुसर बरसों

कराई ख़ूब मालिश ख़ूब अपने पाँव दबवाए
मगर उस्ताद ने बख़्शा नहीं अपना हुनर बरसों

बुढ़ापे में जो शादी की तो रातें खाँसते गुज़रीं
रहे हम उन के बॉडीगार्ड बन कर बा-ख़बर बरसों

ख़ुदा की देन तो देखो हुए हर साल ही बच्चे
लंगोटी छोड़ आते थे नहीं जाते थे घर बरसों

प्रूफ़ अपनी मोहब्बत का दिया है हम ने यूँ 'दिलकश'
शुगर वाइफ़ को थी हम ने नहीं खाई शकर बरसों


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