दीवाना अपना कौन सा आलम दिखा गया उन के लबों पे एक तबस्सुम सा आ गया मुद्दत से ज़िंदगी में नहीं कोई इंक़लाब शायद तिरा फ़िराक़ मुझे रास आ गया तुम पर ही कुछ असर न हुआ और बारहा दुश्मन भी मेरे हाल पे आँसू बहा गया उन से बराह-ए-रास्त हुई जब न गुफ़्तुगू अश्कों के वास्ते से पयाम-ए-वफ़ा गया नक़्श-ओ-निगार-ए-दामन-ए-सहरा को हो नवेद मैं या'नी एक आबला-पा और आ गया अब इस का क्या इलाज कि उन का हर इक सितम कुछ और ए'तिमाद-ए-मोहब्बत बढ़ा गया वो बज़्म और जुरअत-ए-इज़हार-ए-ज़िंदगी इक मैं ही था कि तोहमत-ए-हस्ती उठा गया अफ़्सुर्दा बज़्म-ए-माह हो या शम्अ-ए-अश्क-बार परवाना अपना जश्न-ए-चराग़ाँ मना गया उन का करम तो आज भी है दस्तगीर-ए-शौक़ 'बासित' मगर हमीं में कोई फ़र्क़ आ गया