एक मरकज़ पे मिरा ज़ौक़-ए-तमाशा न रहा अभी पर्दा न रहा था अभी जल्वा न रहा जो दिखाए मिरी ग़फ़लत ने दिखाए मंज़र जब खुली आँख तो फिर कोई तमाशा न रहा हाए ये जोश-ए-वफ़ा ज़ौक़-ए-वफ़ा कैफ़-ए-वफ़ा इस तरह उन का हुआ मैं कि ख़ुद अपना न रहा यूँ तो कहने को ब-ज़ाहिर जो मिरी हालत हो दिल की दुनिया का हक़ीक़त में वो नक़्शा न रहा कुछ निगाह-ए-करम-आमेज़ ने रोका दिल को कुछ मुझे हौसला-ए-अर्ज़-ए-तमन्ना न रहा क्यों है दुनिया को मिरी फ़िक्र जो उन के ग़म में ग़म की दुनिया न रही या ग़म-ए-दुनिया न रहा महव थी आँख तिरे जल्वा-ए-रंगीं में मगर निगह-ए-दिल को ये पर्दा भी गवारा न रहा अब इसी जल्वा-ए-बे-जल्वा की है दिल को तलाश कभी पिन्हाँ न रहा जो कभी पैदा न रहा ऐ ख़ुदा इन के लिए और ज़मीं पैदा कर ये जहाँ क़ाबिल-ए-अर्बाब-ए-तमन्ना न रहा रूह को ग़र्क़ किया दिल को डुबोया 'बासित' एक रुख़ पर कभी सैलाब-ए-तमन्ना न रहा